सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

क्रांति के सांस्कृतिक सुर का पुरोधा : आरा


आरा एक ऐसा शहर है, जहाँ आजादी की लडाई और सांस्कृतिक विरासत की गाथा एक साथ लिखी गयी। बुकानन ने १८१२ में पाया था कि आरा में कुल २७७५ घर थे, जिसमें औसतन एक घर में आठ आदमी रहते थे। उस समय का शहर संभ्रांत बंगाली परिवारों और गरीब श्रमिकों का था। किंतु १८५७ की क्रांति के साथ ही इस छेत्र में शैक्षिक और सांस्कृतिक चेतना भी जगी। और इसके सबसे बड़े सूत्रधार थे बाबू कुंवर सिंह। बाबू कुंवर सिंह ने न केवल देश को आज़ाद कराने कि लडाई लड़ी, बल्कि समाज में शिक्षा के फैलाव कि बुनियाद भी कायम की। उन्होंने स्कूल-कॉलेज खुलवाए और इसके लिए हर तरह का वित्तीय सहयोग भी दिया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पुरे भारत में आरा वो एकमात्र शहर था, जिस पर बगावत के आरोप में बाकायदा मुक़दमा चला। १८५९ में चले इस मुक़दमें का नाम था- गवर्नमेंट वर्सेस दि टाऊन ऑफ़ आरा। इसमें अभियुक्त कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह नहीं, बल्कि पूरा आरा शहर था। इसमें गवाह थीं जली हुई इमारतें, आरा हाउस में घिरे सत्र न्यायाधीश लिटिलडेल की डायरी, डायरी मारे गए अँगरेज़ सैनिकों की लाशें और जेल का टूटा हुआ फाटक।

२७ जुलाई, १८५७ को बाबू कुंवर सिंह के सिपहसालार हरकिशन सिंह के नेतृत्व में दानापुर कैंट के विद्रोही सैनिकों ने धावा बोल दिया। ये सैनिक गंगा, सोन नदियों से होकर तथा सड़क के रास्ते से आरा पहुंचे थे। आरा के कलक्टरी और कचहरी में आग लगा दी और आरा हाउस पर कब्ज़ा कर लिया। शाहाबाद के मैजिस्ट्रेट एच सी बेक ने देखा कि विद्रोही पलटनें सरकारी अहाते और कलेक्ट्रेट में घुस गयीं हैं और वहां आगजनी तथा तोड़-फोड की जा रही है। आरा के ही एक रईस सुखानंद महाजन मौलाबाग में अपनी कोठी की छत पर पत्नी के साथ खड़े ये सब देख रहे थे। विद्रोही सिपाहियों ने ट्रेजरी से ६५ हज़ार रुपये लूट लिए और जेल से तकरीबन ५०० कैदियों को मुक्त करा लिया। स्कूल मास्टर गौद्फ्रे ने अपनी डायरी में लिखा कि छत पर रखी बालू कि बोरियों कि आड़ लेकर अँगरेज़ उन सैनिकों पर हमला कर रहे थे। ये सिलसिला दिन-रात चलता रहा। अंततः वीर कुंवर सिंह के नेतृत्व में आरा पर कब्ज़ा कर लिया गया और पूरे शहर में अंग्रेजों के शासन से मुक्ति की मुनादी करवाई गई। इस प्रकार आरा २७ जुलाई, १८५७ से २१ अगस्त, १८५७ तक अंग्रेजों के शासन से मुक्त रहा।

बाबू कुंवर सिंह ने आरा में पूर्वी और पश्चिमी थाना कायम किया था और दोनों थानों के मैजिस्ट्रेट बनाये गए थे, नामी वकील और कुंवर सिंह के साथी गुलाम याहिया। इसी प्रकार मिल्की मोहल्ला निवासी शेख अजीमुद्दीन को पूर्वी थाने का जमादार तथा दीवान शेख अफज़ल के दो पुत्रों- तुराब अली और खादिम अली को इन थानों का कोतवाल बनाया गया था। उधर हरकिशन सिंह के नेतृत्व में आज़ाद सरकार का गठन कर लिया गया था और अमर सिंह ने मोर्चा संभाल लिया था। उस जगह पर अंग्रेज़ी राज के समानांतर ही कोर्ट-कचहरी की व्यवस्था की गयी थी। दरअसल अमर सिंह की अगुआई में जगदीशपुर में जो सरकार कायम की गयी थी, उसके वास्तविक नेता हरकिशन सिंह ही थे। उनका सैनिक संगठन काफी मज़बूत था। जनता का सुख-शान्ति ही शासन का लक्ष्य था।
लेकिन जल्दी ही बंगाल तोपखाने के अधिकारी विन्सेंट आयर ने ३ अगस्त,१८५७ को आरा हाउस में क़ैद अँगरेज़ अफसरों को मुक्त करा लिया। इतना ही नहीं, उसने दर्जन-भर विद्रोही सैनिकों को फांसी पर चढा दिया। इनमें सिपाही रामनारायण पांडे, नबी बख्श, गंभीर सिंह, मंसूर अली खान, शेख वजीर, शेख अहमद, मनसा राम, महाबन ग्वाला, गणेश सिंह और सिपाही पुतुल सिंह थे। आरा में विद्रोहियों को फांसी चढाने का सिलसिला थमा नहीं। डंका बजाकर विन्सेंट आयर ने शहर के कई लोगों को फांसी की सज़ा सुनायी। इस क्रम में कुंवर सिंह के साथी गुलाम याहिया, अब्बास अली, बन्दे अली और छोटे कुर्मी को सरेआम फांसी दे दी गयी। इस तरह ये आग धधकती रही लेकिन दूसरी तरफ़ सामाजिक और शैक्षिक चेतना का नया दौर शुरू हो चुका था ।

१८५४ से १८८२ के बीच शाहाबाद क्षेत्र में शिक्षा का आरंभिक विकास दिखायी देता है। १८५५ में यहाँ मिद्दले स्कूल की स्थापना हुई। इसके बाद १८८२ में आरा टाऊन स्कूल की स्थापना की गयी। इसकी स्थापना के साथ ही उच्च-मध्य वर्ग के लोगों में शिक्षा की चेतना विकसित हुई। अठारहवीं सदी के पांचवें-छठे दशक के बाद से तो शाहाबाद क्षेत्र में शिक्षा के प्रचार-प्रसार का क्रम उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया और १९०१ आते-आते इस क्षेत्र में कुल ११४ स्कूलों की स्थापना हो चुकी थी।
इतना ही नहीं, आगे चलकर आरा नागरी प्रचारिणी सभा की गतिविधियों का भी केन्द्र बना। स्वतंत्रता-आन्दोलन के दौरान यहाँ क्रांतिकारियों की महत्वपूर्ण बैठकें हुआ करती थीं। उस समय रघुवंश नारायण सिंह, हंसराज सिंह, दीपनारायण सिंह, हारुन साहेब और रामनरेश त्रिपाठी-जैसी शख्सियतें अत्यन्त सक्रिय थीं। यहाँ से तब कई क्रन्तिकारी पत्र-पत्रिकाएं भी प्रकाशित हुईं, जिनमें 'स्वाधीन भारत' और 'अग्रदूत' प्रमुख थीं। इन पत्रिकाओं के प्रकाशन में रामायण प्रसाद तथा बनारसी प्रसाद भोजपुरी ने मुख्य भूमिका निभाई थी।
इसके बाद १९०३ में जैन सिद्धांत भवन और १९११ में बाल हिन्दी पुस्तकालय की स्थापना हुई। इसी साल पाक्षिक पत्रिका 'जैन सिद्धांत भास्कर' का प्रकाशन शुरू हुआ। इसके पश्चात १९१७ में हित नारायण क्षत्रिय स्कूल तथा मॉडल स्कूल की स्थापना हुई। ये मॉडल स्कूल ही बाद में जिला स्कूल के नाम से विख्यात हुआ। महान राजनेता बाबू जगजीवन राम, शहीद गनपत चौधरी, डॉ राम सुभग सिंह, अम्बिका शरण सिंह तथा सरदार हरिहर सिंह आदि यहीं के छात्र थे। फिर १९३४ में भुवनेश्वर मिडिल स्कूल की स्थापना हुई, जो हैटर आयोग की रिपोर्ट के बाद १९५४ में हाई स्कूल बना।
आर्य समाजियों ने भी शिक्षा के इस अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। १९२७ में स्थापित आर्यसमाज मन्दिर भी आन्दोलन की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा। वंशरोपण चौधरी की पुत्रवधू सुग्गा देवी ने सामाजिक चेतना जगाने के लिए 'आर्यवीर दल' की स्थापना की । आर्यसमाजी नेत्री सुग्गा देवी के नाम पर 'सुग्गा देवी पुस्तकालय' की स्थापना की गयी, जिसे 'श्रद्धानंद भवन' भी कहा जाता है। इस क्षेत्र के मध्यवर्गीय समाज में राजनीतिक चेतना १९२० से १९४७ के बीच बहुत विकास पा चुकी थी। १९२१ में जब गांधीजी सासाराम और बक्सर के साथ-साथ आरा में भी पधारे तो यहाँ आन्दोलन की गति को और भी बल मिला। १९२१ में आरा में ही कोंग्रेस का प्रथम बिहार राजनैतिक सम्मलेन आयोजित हुआ, जिसमें गांधीजी के साथ डॉ राजेंद्र प्रसाद भी शरीक हुए। इस प्रकार १९३० आते-आते असहयोग आन्दोलन काफी तेज़ हो गया था। इस आन्दोलन में यहाँ से दीप नारायण सिंह, दुर्गा शरण सिंह, सरदार हरिहर सिंह, पत्रकार नंदकिशोर तिवारी तथा मुरलीधर श्रीवास्तव ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। पत्रकार नंदकिशोर तिवारी ने यहीं से 'चाँद' पत्रिका का 'फांसी अंक' निकाला और भवानी दयाल सन्यासी तथा दुर्गा शरण सिंह ने 'कालावास' पत्रिका निकाली। फिर १९३७ में आरा नगरी प्रचारिणी सभा ने 'स्वाधीन भारत' पत्रिका निकाली, जिसके सम्पादक रामायण प्रसाद और बनारसी प्रसाद भोजपुरी थे। इसी प्रकार १९३७ में ही मुरलीधर श्रीवास्तव ने काका कालेलकर और गांधीजी के साथ हिन्दी-स्वदेशी जागरण किया, जिसे आगे चलकर १९३९ में बनारसी प्रसाद भोजपुरी ने 'अग्रदूत' पत्रिका का प्रकाशन कर और आगे बढाया।
फिर आया अगस्त क्रांति का दौर। क्रांतिवीरों ने एक बार फिर अंग्रेजों को ललकारा। क्रांतिकारियों का एक दल कचहरी पर तिरंगा फहराने कवि कैलाश के नेतृत्व में पहुँचा। फिरंगियों की गोली से कवि कैलाश शहीद हो गए। उसके बाद भगदड़ मच गयी। किंतु तबतक क्रांति की आग हर जगह फैल चुकी थी। इसी क्रम में १५ सितम्बर, १९४२ को लासधि (lasadhi) गाँव में कुछ युवा तिरंगा फहराकर सभा कर रहे थे, तभी अंग्रेजों ने उन्हें मशीनगन से भून डाला।
आरा की ऐतिहासिक क्रांतिकारी धरती साहित्यकार आचार्य शिवपूजन सही और सदल मिश्राके योगदान के लिए भी विख्यात है। फोर्ट विलियम कॉलेज के प्राध्यापक सदल मिश्रा आधुनिक गद्य शैली के रचयिता माने जाते हैं। इतना ही नहीं, २१ जनवरी, १९४२ को स्थापित हर परसाद दास जैन कॉलेज भी स्वतंत्रता की गौरवमयी गाथा लिखने में पीछे नहीं रहा। दुमराऊँ (dumraon) के महाराज रणविजय प्रसाद सिंह ने ८१ बीघा ज़मीन और एक लाख ५५ हज़ार की राशि देकर इसकी स्थापना कराई थी।
फिर भी, आरा की क्रांति के इतिहास में बाबू कुंवर सिंह का नाम अग्रणी है, इसीलिए उस वीर की याद में बिहार अश्वारोही पुलिस का मुख्यालय आरा में ही बनाया गया।