सोमवार, 28 सितंबर 2009

स्वतंत्रता आन्दोलन की कर्मस्थली : गया






                   गया एक महान तीर्थस्थली है, जहाँ से सत्य और अहिंसा के उदघोष के साथ-साथ मनुष्यों के जन्म से मुक्ति का महाघोष भी सुनाई देता है। कहा जाता है कि गया, धरती पर आतंक कायम रखने वाले विष्णुभक्त गयासुर के शरीर पर बसा है। इस गयासुर की चर्चा वेदों में भी मिलती है। कहा जाता है कि गयासुर का विशालकाय शरीर गयाशीर्ष की पहाडियों से होकर आँध्रप्रदेश के गयापद हिल तक सुप्तावस्था में पड़ा था। इसलिए इसके सिर वाले स्थान का नाम गयाशीर्ष और पैर वाली जगह का नाम गयापाद पड़ गया। धरती पर आतंक कायम रखने वाले गयासुर का आतंक ख़त्म के लिए देवों ने छल से इसके हृदय पर विष्णुय्ग्य करवाकर उसका वध इसक करवा दिया।

                 गया ऐसा ही प्रदेश है, जहाँ का जिला स्कूल, टी मॉडल स्कूल, हरिदास सेमिनरी, कासमी मिडल स्कूल और टेकारी राज हाई स्कूल उन पुराने विद्यालयों में से है, जहाँ क्रांति की मशालें जलती रहीं और उनकी लपटें दूर-दूर तक फैलती चली गयीं। १३ अगस्त को क्रांतिकारियों का कोतवाली पर प्रदर्शन हुआ। अगस्त क्रांति पर तिरंगा फहराते कई छात्र गिरफ्तार कर लिए गए। गाँधी जी के 'करो या मरो' के आहवान के बाद डोमन प्रसाद और रामकिशुन जी को विरोध-प्रदर्शन करते हुए अंग्रेज़ी सरकार ने गिरफ्तार कर लिया।
              पर ये तो बाद की बात है। सबसे पहले यहाँ राजगीर परगने पर कब्ज़ा कर के अंग्रेज़ी राज के खात्मे का संकेत दे दिया गया था, पर अंग्रेजों ने रजा हैदर अली खान को गिरफ्तार कर फांसी की सज़ा दे दी। सरदार जवाहर रजवार, एतवा रजवार और जमादार रजवार ने १० अगस्त, १८५७ को फतेहपुर में विप्लव किया। उन्होंने वहीं गुरिल्ला लडाई की शुरुआत की। २० सितम्बर, १८५७ को मौजा उरसा के ख्वाजा वजीर अली पर आक्रमण करने के दौरान रजवार खेत रहे। प्रतिक्रिया में अंग्रेजों ने तारापुर, खारंपुर, हरिपुर, सकरपुर, पासी, बर्हत और गोविंदपुर को जला दिया। इसके बाद २४ सितम्बर, १८५७ को रजा मेहंदी अली खान ने अंग्रेंजों के ख़िलाफ़ लडाई शुरू कर नवादा पर कब्ज़ा कर लिया।
                 सत्य और अहिंसा के रास्ते चलकर ज़ुल्म का प्रतिकार करने की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती। ११ मार्च, १९२२ को सत्याग्रह करते हुआ जब गाँधी जी गिरफ्तार हेर तो यहाँ भी विद्रोह भड़क उठा और लोग जगह-जगह सभाएं कर गिरफ्तारियां देने लगे। इसी गया में १९२२ में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित हुआ। इसमें गाँधी जी, पंडित जवाहर लाल नेहरूऔर लाल बहादुर शास्त्री-जैसी हस्तियों ने हिस्सा लिया था। इसके बाद क्रांति की ये आग और भी परवान चढी। 'गया काउन्स्पिरेसी कांड' इसका गवाह है। १९२८ की वो क्रन्तिकारी कहानी पुरी दुनिया को मालूम है जब देश के सशश्त्र क्रांतिकारी दस्ते के टेररिस्ट मूवमेंट के दौरान बंगाल के गवर्नर की हत्या हुई। इसकी योजना यहीं बनी थी। चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त- सभी उसमें शरीक हुए थे।
             सी आई डी इंसपेक्टर आई एस गांगुली की रिपोर्ट पर हाईकोर्ट ने १७ क्रांतिकारियों को इस केस में सज़ा दी। विश्वनाथ माथुर, श्याम बर्थ्वार, सूर्य सेन, शत्रुघ्न शरण सिंह, जगदेव लोहार और सहदेव सिंह-जैसे १७ क्रांतिकारियों को कालापानी की सश्रम सज़ा हुई। इसी बीच क्रांतिकारियों ने इम्पिरिअल मेल से डाल्टेनगंज कॉटन मिल के लिए भेजी जा रही चांदी की सिल्लियों को गया में लूट लिया।
                    इसी क्रम में १३ अगस्त, १९४२ को कोतवाली पर क्रांतिकारियों का जुलूस निकला। ताराचंद जैन और बाधो बरनवाल अंग्रेजों की गोलियों से ज़ख्मी हो गए। रामकिशुन माली, अब्दुल रऊफ, कन्हैया प्रसाद, कामेश्वर, लादू राम, गंगा, बिशुन और डोमन प्रसाद-जैसे कई क्रांतिकारी छात्र गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें सश्रम कारावास की सज़ा भुगतनी पड़ी।
                       फिर आया १४ अगस्त, १९४२ का दिन। गया कोतवाली पर क्रांतिकारियों का जुलूस निकला। अंग्रेज़ी हुकूमत ने गोलियाँ चलवायीं। और इस गोलीकांड में कैलाश, जगन्नाथ मिश्रा और मुई राम- जैसे नौजवान शहीद हो गए। इस गोलीकांड के विरोध में क्रांतिकारी  अवध बिहारी शरण ने अपने हाथ से लिखे पोस्टर मानपुर की दीवारों पर रातों-रात चिपका डाले। इसमें लिखा था- 'अंग्रेंजों, भारत छोडो'। इसके बाद गया शहर में कोहराम मच गया। सी आई डी के लोग इन सभी की खोज करने लगे। बाद में सोशलिस्ट पार्टी के कुछ सदस्यों की गिरफ्तारियां भी हुईं।
आज भी सार्जेंट मेजर की गोली से शहीद हुए मुई राम, जगन्नाथ मिश्रा और कैलाश राम की मूर्तियाँ घामी टोला और कोतवाली पर लगी हैं, जो इन शहीदों की शहादत की मौन गवाही दे रही हैं।

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

बिहार : कैमरे की नज़र से

बिहार हमेशा से एक अनूठा प्रदेश रहा है। यहाँ की ऐतिहासिक इमारतें, सांप्रदायिक सदभाव के प्रतीक प्राचीन स्थल और गंगा-जमुनी तहजीब में रचा-बसा शहर अपनी कहानी ख़ुद कहते हैं ।

पेश है, बिहार की कहानी, कैमरे की ज़ुबानी
































शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

प्रसारण की क्षमता

शब्दों की आकाश-यात्रा

प्रारम्भ में रेडियो की उपयोगिता समुद्री जहाजों और सेना में ही थी । वहाँ संदेशों के आदान-प्रदान के लिए रेडियो का इस्तेमाल होता था। उस समय रेडियो 'वायरलेस सिस्टम' के अलावा कुछ नही था। रेडियो के साथ एक विचित्र बात ये है कि इसकी खोज या निर्माण का कोई एक दावेदार नहीं है; न ही किसी एक को इसका श्रेय दिया गया है। सन् १८६४ में वायरलेस कि स्थिति मात्र सैद्धांतिक थी, जब स्कॉट्लैंड के गणितज्ञ और भौतिकशास्त्री जेम्स क्लार्क मैक्सवेल ने अपना एक शोध-पत्र प्रकाशित कराया था, जिसके अनुसार किसी भी संकेत को इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक प्रोसेस द्बारा कहीं भी भेजना सम्भव है। रेडियो इस प्रोसेस की दो विशेषताओं से युक्त है। एक, इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल का अलग-अलग फ्रीक्वेंसी तक प्रसरण और दूसरा अवरोध के स्तर का निर्धारण। मैक्सवेल का ये सिद्धांत अदृश्य इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक तरंगों की मौजूदगी को स्वीकार करता है, जो एक स्थान तक जा सकती थीं.

इसके बीस वर्षों के बाद १८८७ में हेनरिक हेर्त्ज़ ने एक क्रूड स्पार्क प्लग जनरेटर का निर्माण किया जिसके द्वारा
एक इलेक्ट्रिक स्पार्क को रिसीविंग कॉयल द्वारा खोजा जा सकता था । इस प्रकार हर्ट्ज़ ने वायरलेस संकेतों को मापने में सफलता पाई । इसीलिए इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक तरंगो की इकाई के माप का नाम 'हर्ट्ज़'- हेनरिक हर्ट्ज़ के नाम के साथ जुड़ गया।

लेकिन वायरलेस के क्षेत्र में सबसे उल्लेखनीय सफलता पाई इटली के गुग्लिएल्मो मार्कोनी ने। मार्कोनी ने अपने प्रयोग १८९४ में प्रारम्भ किए और उसने हर्ट्ज़ की खोज को आगे बढाते हुए ये स्थापित किया कि बाहरी एंटीना के प्रयोग से विद्युत-संकेतों को बढाया जा सकता है। इसके अलावा उसने वायरलेस संकेतों को नियंत्रित करने के लिए एक टेलीग्राफ कुंजी को इससे जोड़ा और उसने एक ऐसे वायरलेस सिस्टम के निर्माण में सफलता पाई जो विद्युत संकेतों को दो मील कि दूरी तक भेजने और ग्रहण करने में सक्षम था। फिर भी, ये सिस्टम 'मोर्स कोड' और 'डॉट डिशेज' से मुक्त नही था।

दूसरी तरफ़ अमेरिका में कार्यरत कनाडा के एक वैज्ञानिक रेगिनाल्ड फेस्सेंदें एक ऐसा वायरलेस सिस्टम बनाना चाहते थे जो लगातार किसी कैरियर वेव का इस्तेमाल कर सके। फेस्सेंदें ने १९०६ में पहला विज्ञापित प्रसारण अमेरिका के ब्रांत-रौक मेसठुट्स स्थित १२८ मीटर ऊँचे खंभे से किया। ये 'मोर्स कोड' प्रणाली से मुक्त प्रसारण था, जिसमें बाइबिल के अंशों पर आधारित नाटक 'ओ होल्ली नाईट' का वाइलिन पर प्रसारण और श्रोताओं से बातचीत शामिल थी और फेस्सेंदें के पहले रेडियो श्रोता बने जहाजों के रेडियो ओपरेटर और अखबारों के रिपोर्टर। हालाँकि इसकी गुणवत्ता अच्छी नहीं थी, लेकिन फेस्सेंदें का ये प्रयास न सिर्फ़ पहले 'मोर्स कोड मुक्त' प्रसारण के लिए याद किया जाता है; बल्कि उसे विश्व के पहले 'डिस्क जौकी' के रूप में भी मान्य किया जाता है।